चंडीगढ़/यमुनानगर(जिला ब्यूरो राजीव मेहता) 10 जुलाई
देश व प्रदेश भर में रविवार को मुस्लिम समुदाय द्वारा बकरीद का त्यौहार बडे ही उत्साह और खुशी के साथ मनाया गया। इसी कड़ी में यमुनानगर के शादीपुर स्थित मस्जिद में भी बकरीद की नमाज अदा की ।

शादीपुर मस्जिद के इमाम मोहम्मद मुर्शिलीन ने बकरीद के इतिहास और मान्यता की जानकारी देते हुए बताया कि इस्लाम धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे की कुर्बानी देने का निश्चय किया तभी इस पर्व की नींव पड़ी। इस्लाम में मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम अल्लाह के पैगंबर थे। एक बार अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी। अल्लाह उनके सपने में आए तो उनसे उनकी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने की मांग की। और उन्होंने अपने अजीज बेटे इस्माइल को कुर्बान करना चाहा। लेकिन खुदा का करिश्मा यह हुआ की इस्माल की जगह तुंबे की कुर्बानी हो गई। तब से ही बकरीद पर कुर्बानी दी जाने लगी। इमाम ने बताया कि बकरीद जिसे ईद उल-अदहा और ईद उल -अजहा के नाम से भी जाना जाता है। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार यह पर्व मीठी ईद के ठीक दो महीने के बाद इस्लामिक कैलेंडर के सबसे आखिरी महीने में 10 तारीख को मनाई जाती है। इस महीने में पूरी दुनिया से मुस्लिम संप्रदाय के लोग साउदी अरब स्थिति मक्का आकर हज करते हैं। यहां पर बकरीद के दिन तुंबे की बलि भी दी जाती है। बकरीद में बकरे की कुर्बानी दी जाती है। बकरीद के लिए मुसलमान अपने घर में लाड़-प्यार से पल रहे बकरे की कुर्बानी देते हैं। जिन लोगों के घर में बकरा नहीं होता है वे ईद से कुछ दिन पहले बाजार से बकारा खरीदकर उसे घर ले आते हैं और फिर बकरीद के दिन उसकी कुर्बानी देते हैं। ऐसा नियम नहीं है कि बकरीद के दिन ही बकरे को खरीद लाएं और कुर्बानी दे दें। बकरे के मीट को 3 हिस्सों में बांट दिया जाता है। पहला हिस्सा गरीब फकीरों में बांट दिया जाता है और दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों को भिजवाया जाता है और तीसरा हिस्सा घर में पकाकर खाया जाता है। ऐसा नहीं है कि आप पूरा का पूरा बकरा अपने लिए रख लिए, कुर्बानी में दान भी बेहद जरूरी है। बकरीद को कुर्बानी के जज्बात को सलाम करने के महापर्व के रूप में मनाया जाता है। अल्लाह की राह में पैगंबर मोहम्मद के पूर्वज इब्राहिम द्वारा दी गई कुर्बानी को याद करने के उपलक्ष्य में बकरीद मनाई जाती है।