पावन स्थली का ‘वृन्दावन’ नामकरण कैसे हुआ?
आर पी डब्लू न्यूज़/ब्यूरो रिपोर्ट
वृंदावन जनवरी 2:-पावन स्थली का वृन्दावन नामकरण कैसे हुआ? इस संबंध में अनेक मत हैं। दरअसल, ‘वृन्दा’ तुलसी को कहते हैं। यहां तुलसी के पौधे अधिक थे। इसलिए इसे वृन्दावन कहा गया। वन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृन्दा हैं। कहते हैं कि वृन्दा देवी का मन्दिर सेवा कुंज वाले स्थान पर था। यहां आज भी छोटे-छोटे सघन कुंज हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वृन्दा राजा केदार की पुत्री थी। उसने इन वन स्थली में घोर तप किया था। अत: इस वन का नाम वृन्दावन हुआ। कालान्तर में यह वन धीरे-धीरे बस्ती के रूप में विकसित होकर आबाद हुआ। इसी पुराण में कहा गया है कि श्रीराधा के सोलह नामों में से एक नाम वृन्दा भी है। वृन्दा अर्थात् राधा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलने की आकांक्षा लिए इस वन में निवास करती है
और इस स्थान के कण-कण को पावन तथा रसमय करती हैं।आदि वृन्दावन इतिहास के पृष्ठों में कुछ विद्वानों के अनुसार यह वह वृन्दावन नहीं है, जहां भगवान श्री कृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाओं के द्वारा प्रेम एवं भक्ति का साम्राज्य स्थापित किया था। ये लोग पौराणिक वर्णन के आधार लेकर कहते हैं कि वृन्दावन के समीप गोवर्धन पर्वत की विद्यमानता बताई है जबकि वह यहां से पर्याप्त दूरी पर है। कुछ लोग राधाकुण्ड को तो कुछ लोग कामा को वृन्दावन सिद्ध करते हैं। उस काल में यमुना वहीं से होकर बहती थी। धीरे-धीरे यमुना का प्रवाह बदलता रहा। प्राचीन वृन्दावन के लुप्त प्राय: हो जाने से नवीन स्थल पर ‘वृन्दावन’ बसाया गया। वृन्दावन कहीं भी रहा हो यह बात खोजकर्ताओं के लिए छोड़ देना चाहिए। इन बातों से वृन्दावन की महिमा में कोई कमी नहीं आती।पंद्रहवीं-सोलहवी शताब्दी में मदन-मोहनजी, गोविन्द देवजी, गोपीनाथजी, राधाबल्लभजी आदि मन्दिरों का निर्माण हो चुका था। औरंगजेब के शासन के समय जब वृन्दावन ही नहीं, ब्रज मण्डल के अनेक मन्दिरों को नष्ट किया जा रहा था तब वृन्दावन के अनेक श्रीविग्रहों के जयपुर आदि अन्यान्य स्थानों को भेज दिया गया था। वृन्दावन का नाम मोमिनाबाद रखने का प्रयत्न किया जो प्रचलित नहीं हो सका
और सरकारी कागजातों तक ही सीमित रहा।सन् 1718 ई. से सन् 1803 ई. तक तो ब्रजमण्डल में जाट राजाओं का आधिपत्य रहा, लेकिन सन् 1757 ई. में अहमदशाह ने ब्रज मण्डल के मथुरा, महावन आदि तीर्थ स्थलों के साथ वृन्दावन में भी लूटपाट की थीं।
सन् 1801 ई. के अन्तिम काल में ब्रज मण्डल के अनेक क्षेत्रों पर पुन: जाट राजाओं की फिर से हुकूमत हो गई। उसके बाद ही वृन्दावन को पुन: प्रतिष्ठित होने का अवसर मिला।