
आर पी डब्लू न्यूज़/ऋतु रहनुमा
दिल्ली जनवरी 7:-भारत की वर्तमान G20 अध्यक्षता इसलिए भी और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि वैश्विक समूह G20 की अध्यक्षता करते हुए भारत ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज बन कर उभरा है। भारत ने कई मंचों और अवसरों पर ग्लोबल साउथ शब्द का जिक्र करते हुए वैश्विक दक्षिणी और वैश्विक उत्तर के विभाजन को प्रमुखता से प्रदर्शित किया है। ऐसे में यह जानना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर ग्लोबल साउथ क्या है?
इतिहास और विकास
ग्लोबल साउथ शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर कम आर्थिक रूप से विकसित देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। यह एक व्यापक शब्द है जिसमें अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के विभिन्न स्तरों के आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव वाले विभिन्न राज्य शामिल हैं। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में ग्लोबल साउथ का एक अंतःविषय क्षेत्र है, इसका ऐतिहासिक रूप से एक बहुत ही यूरोसेंट्रिक परिप्रेक्ष्य से अध्ययन किया गया है जो वैश्विक दक्षिण में होने वाले विकास को समझने में हमेशा हमारी मदद नहीं करता है। ग्लोबल साउथ के दृष्टिकोण को समझना मुख्यधारा के अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों के पश्चिमी-केंद्रित फोकस की चर्चा से शुरू होता है।समकालीन राजनीतिक अर्थों में ग्लोबल साउथ शब्द का पहला उपयोग 1969 में एक अमरीकी राजनीतिक विज्ञानी कार्ल ओल्स्बी द्वारा वियतनाम युद्ध पर कैथोलिक जर्नल कॉमनवील में लिखे अपने एक विशेष अंक में दिखता है। ओल्स्बी ने तर्क दिया कि सदियों से उत्तर का “वैश्विक दक्षिण देशों पर प्रभुत्व रहा है उसने उत्तरी देशों (जिनमें मुख्यतः पश्चिमी देश शामिल थे) ने ग्लोबल साउथ के देशों में एक असहनीय सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए अभिसरण किया।इस शब्द ने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अधिक लोकप्रियता प्राप्त की, जो 21वीं शताब्दी की शुरुआत में और अधिक तेजी से बढ़ी। जहां 2004 में यह शब्द केवल दो दर्जन से भी कम प्रकाशनों में दिखाई दिया जाता था वहीं वर्ष 2013 तक आते – आते यह सैकड़ों तीसरी दुनिया या विकासशील दुनिया की परेशान वास्तविकताओं के लिए प्रयोग होने लगा।1955 में बांडुंग सम्मेलन में तीसरी दुनिया के नाम से प्रसिद्ध देशों की एक प्रारंभिक बैठक में पूर्वी या पश्चिमी ब्लॉकों के साथ समान उद्देश्य से दोनों केंद्रों के साथ सम्मलित होने के विकल्प को बढ़ावा दिया गया था। इसके बाद, 1961 में पहला गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था जहां यह शब्द और भी मुखर हो कर सामने आया।हालाँकि समय के साथ- साथ ग्लोबल साउथ शब्द का विस्तार होता गया और इस शब्द ने दुनिया भर में ऐसे देशों की आवाज बनना शुरू किया जो अल्प विकसित और विकाशील अवस्था में थे।
ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ में अंतर
ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ (वैश्विक दक्षिण और वैश्विक उत्तर) की अवधारणा का उपयोग सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विशेषताओं के साथ देशों के समूह का वर्णन करने के लिए किया जाता है। ग्लोबल साउथ एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल अक्सर लैटिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और ओशिनिया के क्षेत्रों की पहचान करने के लिए किया जाता है । यह “थर्ड वर्ल्ड” और “पेरिफेरी” सहित शब्दों के परिवार में से एक है, जो यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बाहर के क्षेत्रों को दर्शाता है। इनमें से कुछ कम आय वाले देश हैं और विभाजन के एक तरफ अक्सर राजनीतिक या सांस्कृतिक रूप से हाशिए पर रहे हैं।दूसरी तरफ ग्लोबल नॉर्थ के देशों को दुनिया के विकसित देशों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इस प्रकार, यह शब्द स्वाभाविक रूप से भौगोलिक दक्षिण को संदर्भित नहीं करता है उदाहरण के लिए, अधिकांश वैश्विक दक्षिण भौगोलिक रूप से उत्तरी गोलार्ध के भीतर है।ग्लोबल नॉर्थ कुछ अपवादों के साथ ज्यादातर पश्चिमी दुनिया के साथ संबंध रखता है जबकि ग्लोबल साउथ बड़े पैमाने पर विकासशील देशों के साथ मेल खाता है जिन्हें पहले ” तीसरी दुनिया” या “पूर्वी दुनिया” कहा जाता था। भौगोलिक रूप से, ग्लोबल साउथ ज्यादातर ऐसे क्षेत्रों से बना है जो न तो पश्चिमी हैं और न ही पूर्वी, जैसे कि लैटिन देश और अधिकांश अफ्रीकी देश पश्चिम में स्तिथ हैं।इन दोनों समूहों को अक्सर उनके अलग-अलग स्तरों के धन,आर्थिक विकास, आय असमानता, लोकतंत्र और राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है। वहीं जिन राज्यों को आम तौर पर ग्लोबल नॉर्थ के हिस्से के रूप में देखा जाता है, वे बड़े,अच्छी तरह से विकसित बुनियादी ढांचे के साथ-साथ उन्नत प्रौद्योगिकी, विनिर्माण और ऊर्जा उद्योगों के साथ अमीर और कम असमान होते हैं। हालांकि इन दोनों में कई अपवाद शामिल होते हैं।
भारत की G20 अध्यक्षता और ग्लोबल साउथ
बाली में अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन, कोविड-19 महामारी और यूक्रेन में युद्ध को बड़ी बाधाएं बताते हुए चुनौतीपूर्ण वैश्विक माहौल में जी20 के बढ़ते महत्व की तरफ सही इशारा किया था। पीएम मोदी के सचेत करने वाले शब्द आज की कठिन वास्तविकताओं और कई तरह के मतभेदों के मौजूद होने को छूते हैं। यूक्रेन के हालात को लेकर दुनिया पूरी तरह बंटी हुई है। इसकी वजह से विकासशील देशों को खाद्य, ऊर्जा और उर्वरक की किल्लत के नतीजों का सामना करना पड़ रहा है। विकासशील देशों की मुख्य चिंता रोजमर्रा के मुद्दों से जुड़ी है, युद्ध की भू-राजनीति से नहीं।भारत द्वारा G20 की अध्यक्षता ‘ग्लोबल साउथ’ के उद्देश्य को समर्थन देने के साथ-साथ नई महत्वाकांक्षा लेकर आई है। इसके साथ ही इसने ‘थर्ड वर्ल्ड’ की एकजुटता पर नए विचारों और उद्देश्यों को सामने ला दिया है। विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने इस साल न्यूयॉर्क में 77वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा की यात्रा के बाद इस तात्कालिक मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए कहा था “आज हम व्यापक रूप से ग्लोबल साउथ की आवाज के रूप में जाने जाते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था में इस समय एक बहुत बड़ा संकट है, जहां भोजन की लागत, ईंधन की लागत और उर्वरकों को लेकर चिंता है।” उन्होंने इस विषय पर चिंता जाहिर करते हुए आगे बताया कि “यह बड़ी निराशा की बात है कि इन मुद्दों को नहीं सुना जा रहा है।
G20: 12 से 13 जनवरी तक वर्चुअल तरीके से आयोजित होगा ‘द वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट’
12 और 13 जनवरी 2023 को वर्चुअल तरीके से ‘द वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट’ आयोजित होने वाला है, जिसका विषय ‘आवाज की एकता, उद्देश्य के लिए एकता’ है। इस समिट के लिए 120 से अधिक देशों को आमंत्रित किया जा रहा है। यह पहल अनिवार्य रूप से वैश्विक दक्षिण के देशों को एक साथ लाने और मुद्दों की एक पूरी श्रृंखला में एक साझा मंच पर उनके दृष्टिकोण को साझा करने की परिकल्पना करता है। यह पहल पीएम नरेंद्र मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास’ के विजन से प्रेरित है जो भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के भी दर्शन करवाता है।
भारत ग्लोबल साउथ की आवाज के रूप में
वर्तमान समय में ग्लोबल साउथ को अग्रणी बनाने के लिये विकासशील देशों के बीच निंदनीय क्षेत्रीय राजनीति पर अंकुश लगाने हेतु भारत एक सक्रिय भूमिका निभा रहा है। वर्तमान समय में विकासशील देशों के विभिन्न क्षेत्रों और समूहों के अनुरूप सक्रिय भारतीय भूमिका को देखा जा सकता है। भारत पुरानी वैचारिक लड़ाइयों पर लौटने के बजाय व्यावहारिक परिणामों पर ध्यान केंद्रित करके उत्तर और दक्षिण के बीच एक पुल बनने के लिये उत्सुक है। भारत द्वारा इस महत्वाकांक्षा को प्रभावी नीति में बदले जानें से सार्वभौमिक और विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है।विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में अपने भाषण में कहा था कि “विकासशील देशों अथवा ‘ग्लोबल साउथ’ की आवाज बनना भारत का कर्तव्य है। विदेश मंत्री ने कहा था कि मौजूदा समय में विकासशील देश कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और वे बड़ी उम्मीदों के साथ भारत की ओर देख रहे हैं।”वर्तमान समय मे भारत वैश्विक समूह G20 की अध्यक्षता कर रहा है जिसके सदस्य देशों में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 85%, वैश्विक व्यापार का 75% से अधिक और विश्व की लगभग दो-तिहाई आबादी है। दुनिया इतना बड़ा मंच ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज उठाने के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसका उपयोग भारत बड़ी कुशलता से कर रहा है।15 अगस्त 1947 से भारत की यात्रा विकास की यात्रा रही है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है,यह पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए एक आकर्षक गंतव्य स्थल है और वैश्विक सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) का सशक्त केंद्र है।भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (2014 से मनाया जाता है) और अंतर्राष्ट्रीय अनाज वर्ष (भारत की G20 की अध्यक्षता के समय पर) को अंगीकार किया है।विभिन्न क्षेत्रों में भारत की कुछ नवीनतम विकास पहलों में स्टार्टअप इंडिया पहल; डिजिटल इंडिया; मेक इन इंडिया अभियान; प्रधान मंत्री जन धन योजना (पीएमजेडीवाई) जो विश्व में सबसे बड़ी वित्तीय समावेशी पहलों में से एक है; आयुष्मान भारत जो सरकार द्वारा प्रायोजित विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सेवा योजना है; और पीएम उज्ज्वला योजना स्वच्छ ऊर्जा की सार्वभौमिक सुविधा प्रदान करती है और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन शामिल है ।इसी तरह भारत ने कई वैश्विक मंचों पर ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज बनने का काम किया है और दुनिया भर में उनके कल्याण और विकास के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई है। इन सभी बातों से समझा जा सकता है कि आखिर भारत क्यों ग्लोबल साउथ देशों की आवाज बन कर उभर रहा है।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग का विकास
विकासशील देशों को दक्षिण-दक्षिण संवाद की प्रक्रिया द्वारा आत्मनिर्भर बनाने तथा उनकी विकसित देशों पर निर्भरता कम करने की प्रक्रिया दक्षिण-दक्षिण सहयोग के नाम से जानी जाती है।द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकासशील देशों के लिए ‘दक्षिण’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। 1945 के बाद समस्त विश्व राजनैतिक शब्दावली में तथाकथित रूप से दो भागों – उत्तर (विकसित) तथा दक्षिण (विकासशील) में बंट गया। परिणामस्वरूप उत्तर-दक्षिण सहयोग के प्रयास शुरू हुए। लेकिन सकारात्मक परिणाम न निकलने से विकासशील देशों ने विकसित देशों के साथ सहयोग की बजाय आपसी सहयोग (दक्षिण-दक्षिण सहयोग) की शुरुआत की। इसके लिए आपसी विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू हुई अर्थात् दक्षिण-दक्षिण संवाद का जन्म हुआ। इसके कारण विकासशील देशों में अंतर्निर्भरता के प्रयास तेज हुए।दक्षिण-दक्षिण सहयोग के परिणामस्वरूप विकासशील देशों में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। इसके अंतर्गत तकनीकी आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज हुई। अति-पिछड़े हुए राष्ट्र भी इसका लाभ उठाकर अधिक विकासशील देशों की श्रेणी में शामिल होने लगे। आज दक्षिण-दक्षिण सहयोग अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख तत्व है।सभी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बने, उनमें से 2/3 सदस्य अफ्रीका से थे। इन देशों ने अपने आप को G-77 कहना शुरू कर दिया। इस संगठन की स्थापना U.N.O के तत्वावधान में 1964 में ही की गई। इसके अधिकतर सदस्य तृतीय विश्व के देश हैं। अपने समान आर्थिक हितों के कारण ये देश नई विश्व अर्थव्यवस्था की स्थापना की बात करते हैं। इसकी 1982 की नई दिल्ली में बैठक के अंतर्गत 44 विकासशील राष्ट्रों के सैकड़ों प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग की पहलें
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का जन्म 1961 के बैलग्रेड सम्मेलन में हुआ। इसमें अधिकतर नवोदित स्वतन्त्र विकासशील देश शामिल हैं। 1975 में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों के लीमा सम्मेलन में विकासशील देशों को आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए संहति कोष की स्थापना करने की स्वीकृति हुई। यह दक्षिण-दक्षिण सहयोग का महत्वपूर्ण प्रयास था। वहीं ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने मिलकर (BRICS) मंच की स्थापना की थी इसके अतिरिक्त सार्क,आसियान ,दक्षिण आयोग,हिमतक्षेस और D-8 जैसे शिखर सम्मेलन आदि के द्वारा दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ाने के प्रयास किया गये।मूल रूप से 19 दिसंबर को दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिये संयुक्त राष्ट्र दिवस की तारीख को वर्ष 2011 में 12 सितंबर को स्थानांतरित कर दिया गया था। यह उस तारीख को याद करता है जब संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने विकासशील देशों के बीच तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने और लागू करने के लिये वर्ष 1978 में एक कार्य योजना अपनाई थी।बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं (TRIPS) में छूट जिसे पहली बार वर्ष 2020 में भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा प्रस्तावित किया गया था, में कोविड-19 टीकों और उपचारों पर बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPRs) की अस्थायी वैश्विक आसानी शामिल होगी, ताकि उन्हें वैश्विक स्वास्थ्य का समर्थन करने और महामारी से बाहर निकलने का रास्ता मिल सके। कोविड-19 टीकों, दवाओं, चिकित्सीय और संबंधित प्रौद्योगिकियों पर समझौता। वर्ष 2021 में भारत ने “वैक्सीन मैत्री” पहल नामक अपना ऐतिहासिक अभियान शुरू किया जो ‘नेबरहुड फर्स्ट नीति’ (Neighbourhood first policy) के अनुसार है। इन सभी पहलों और प्रयासों में भारत की सक्रिय भूमिका को साफ तौर पर देखा जा सकता है।हाल के वर्षों में ग्लोबल साउथ के अभिनेताओं द्वारा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में महत्वपूर्ण योगदान को उजागर करने के लिए भारत ने बहुत कुछ किया गया है, और आगे भी हमेशा करता रहेगा। भारत जैसी नई आर्थिक शक्तियों के साथ-साथ अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के उभरने के साथ अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की गतिशीलता में बदलाव जारी है। ग्लोबल साउथ के दृष्टिकोण न केवल उन प्रमुख सैद्धांतिक दृष्टिकोणों को चुनौती देते हैं, जिन्होंने ग्लोबल नॉर्थ और साउथ के बीच अन्यायपूर्ण संबंधों को बनाने और बनाए रखने का काम किया है बल्कि वे अलग-अलग संभावनाओं को भी खोलते हैं। वर्तमान समय में भारत की G20 अध्यक्षता में भारत का ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज बन जानें से इसे और अधिक बल मिला है।